गांधी की कल्पना उतरती, साँसों में,
अंतराल नापती
हृदय की दो धड़कनों के बीच का,
दूरी
दो सच कही बातों की,
वजन
दो ईमानदार क्षणों का
जो इसी जनम के हों।
सिद्धांत
जो बने अनुभवों की आवाज पर
परखती उन्हें बापू की कल्पना।
हिसाब करती
घड़ियों का
जो गुजरीं वक्त की पाबंद बनकर
जिया जिनमें जीवन
सात्विक प्रखरता के तेज से तनकर।
देती दिलासा
उन बच्चों को
जो अँग्रेजी में फेल हैं
‘...दुनिया से कह दो,
गांधी अँग्रेजी नहीं जानता!’
कहती, ‘मेहनत करो, तब खाओ’
हालाँकि खा-पीकर भी
मेहनत करने वाले कहाँ मिलते आज !
सरल बातों की सरलता लेकर
रेंगती यह कल्पना
पलकों के किनारे-किनारे
और मानना पड़ता
कि निहायत सरल होना कितना
कठिन है!
अंत में कहती - ‘किताबों में मत खोजो मुझे!’